पिहू और प्राणु हफ्ते मे दो बार मेरे पास आते हैं जूनियर जागरण और बाल प्रभात लेने ..एक दिन मैंने बच्चो से पूछा तुम लोग नंदन चम्पक पढ़ते हो या नहीं ? जवाब नहीं में आया ..
अपने बचपन में खो गया मै .. बहुत छोटा था और जब हिंदी पढ़ न पाता था ,तो अपनी बुआ से कॉमिक्स पढ़ कर सुनाने को परेशान कर देता था शायद ?धीरे धीरे खुद सिख गया कॉमिक्स और नंदन चम्पक पढना ..
चाचा चौधरी और साबू मेरे फेवरट पात्र थे .. नंदन आर्याव्रत के बाल क्लब का मेम्बर भी था और पत्र मित्र स्तम्भ के माध्यम से पोस्टकार्ड भेज कर मित्रता भी किया करता था.
उस समय घर में मैगज़ीन पिताजी मंगा दिया करते थे .
लेकिन अब तो दुनिया बदल गयी है . बच्चो के मैगज़ीन की जगह मोबाइल और कंप्यूटर गेम्स और कार्टून नेटवर्क ने पूरी तरह ले ली है.
मनोवैज्ञानिको का मानना है की बल पत्रिकाओ के पढने से बच्चो में बौधिकता का विकास तो होता ही है साथ में उनकी कल्पनाशक्ति का दायरा भी बढ़ता है .
विशेषज्ञ कश्मीर के किशोरों में बढ़ते आक्रोश का कारण बाल साहित्य से दुरी को भी बताते है (2010 के पत्थर बाजी के सन्दर्भ में )
खैर अब तो कागज की कश्ती भी नहीं रही बरसात में क्योंकि विकास का पैमाना सड़क घर के सामने बन गया है ..
और गुनगुनाने को दिल करता है मुझे लौटा दो बचपन का सावन ..